What is a First Information Report (FIR) and related questions and answers?

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) यानी First Information Report एक लिखित दस्तावेज़ होता है, जिसे पुलिस किसी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) की सूचना मिलने पर दर्ज करती है।

यह वह पहली आधिकारिक सूचना होती है, जिससे किसी अपराध की जाँच प्रक्रिया शुरू होती है।


🔹 FIR की परिभाषा (Definition):

दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 154 के अनुसार —
जब किसी व्यक्ति को किसी संज्ञेय अपराध (जैसे हत्या, डकैती, बलात्कार आदि) की जानकारी हो और वह पुलिस थाने में जाकर उस अपराध की सूचना देता है, तो पुलिस उस सूचना को लिखित रूप में दर्ज करती है — यही प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) कहलाती है।


🔹 FIR में क्या-क्या लिखा जाता है:

  1. अपराध का स्वरूप (क्या हुआ)
  2. अपराध की तारीख, समय और स्थान
  3. पीड़ित व्यक्ति या शिकायतकर्ता का नाम व पता
  4. अभियुक्त (यदि ज्ञात हो) का नाम व विवरण
  5. गवाहों के नाम (यदि हों)
  6. अपराध का संक्षिप्त विवरण

🔹 FIR दर्ज करने की प्रक्रिया:

  1. पीड़ित या कोई भी व्यक्ति पुलिस थाने में जाकर अपराध की सूचना देता है।
  2. पुलिस अधिकारी सूचना को लिखित रूप में दर्ज करता है
  3. शिकायतकर्ता से उसकी पुष्टि करवाकर हस्ताक्षर लिए जाते हैं।
  4. FIR की एक प्रति शिकायतकर्ता को नि:शुल्क दी जाती है

🔹 FIR का महत्व:

  • यह जाँच की आधारशिला होती है।
  • FIR दर्ज होने के बाद पुलिस अपराध की जांच शुरू कर सकती है।
  • अदालत में यह महत्वपूर्ण साक्ष्य (evidence) के रूप में प्रयोग होती है।

🔹 FIR दर्ज न होने पर क्या करें:

यदि पुलिस FIR दर्ज करने से मना करे तो—

  • संबंधित पुलिस अधीक्षक (SP) को लिखित शिकायत दें (CrPC धारा 154(3))
  • या सीधे न्यायिक मजिस्ट्रेट (Judicial Magistrate) के पास आवेदन दें।

📜 कानूनी आधार:

  • CrPC की धारा 154(1) के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति संज्ञेय अपराध की सूचना लिखित रूप में थाना प्रभारी को देता है, तो SHO को FIR दर्ज करनी होती है।
  • यदि SHO FIR दर्ज नहीं करता है, तो आप वही आवेदन पुलिस अधीक्षक (SP) को Speed Post से भेज सकते हैंCrPC की धारा 154(3) के तहत।

⚖️ कानूनी स्थिति (Law Point):

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 154(1) के अनुसार —

यदि किसी व्यक्ति को किसी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) के संबंध में सूचना प्राप्त होती है, तो वह पुलिस अधिकारी उस सूचना को लिखित रूप में दर्ज करेगा (यानी FIR)।

इस धारा में कहीं भी “दो गवाह” या “साक्ष्य” की अनिवार्यता का उल्लेख नहीं है।
FIR दर्ज करने के लिए केवल यह ज़रूरी है कि —

  • शिकायत में संज्ञेय अपराध का उल्लेख हो,
  • और सूचना विश्वसनीय प्रतीत हो

📜 सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के निर्णय:

  1. Lalita Kumari vs. Government of Uttar Pradesh (2014) 2 SCC 1
    👉 सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा: “If the information discloses commission of a cognizable offence, the police officer has no option but to register the FIR.
    (अगर शिकायत में संज्ञेय अपराध का उल्लेख है तो FIR दर्ज करना पुलिस की अनिवार्य जिम्मेदारी है।)
  2. FIR दर्ज करने के लिए किसी प्रकार का साक्ष्य या गवाह पहले से प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है — वह सब जाँच के दौरान लिया जाता है।

🚫 SHO द्वारा गवाह मांगना — अनुचित है

अगर थाना प्रभारी (SHO) आपसे कहता है कि —

“दो गवाह लाओ, तभी FIR दर्ज होगी”

तो यह कानूनी रूप से गलत है और CrPC 154(1) के खिलाफ़ है।

आप कर सकते हैं:

  1. SHO को लिखित में बताएं कि “यह संज्ञेय अपराध की सूचना है, कृपया FIR दर्ज करें।”
  2. अगर SHO मना करे या बहाने बनाए —
    ✅ उसी आवेदन की कॉपी Speed Post से SP (वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक) को भेजें,
    ✅ और उसमें उल्लेख करें कि “थाना प्रभारी FIR दर्ज करने से इनकार कर रहे हैं और गवाह की मांग कर रहे हैं, जो विधि विरुद्ध है।”
  3. चाहें तो बाद में CrPC की धारा 156(3) के तहत JMFC कोर्ट में आवेदन देकर FIR दर्ज कराने का आदेश मांग सकते हैं।

🟢 संक्षेप में उत्तर:

FIR दर्ज करने के लिए दो गवाहों की जरूरत नहीं है।
केवल संज्ञेय अपराध की लिखित सूचना ही पर्याप्त है।
SHO का गवाह मांगना कानूनी रूप से गलत है।

⚖️ 1. FIR दर्ज करने के लिए “मामला पुराना” होना कोई वैध कारण नहीं है

CrPC की धारा 154(1) कहती है:

“हर संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस अधिकारी को FIR दर्ज करनी ही होगी।”

📌 इसमें कहीं भी यह नहीं लिखा कि “अगर मामला पुराना है तो FIR दर्ज नहीं होगी।”
कानून के अनुसार —

FIR तभी दर्ज नहीं होगी जब अपराध संज्ञेय न हो (यानि जिसमें पुलिस स्वतः जांच नहीं कर सकती)।


🧾 2. अपराध का “पुराना होना” केवल जांच के दौरान महत्व रखता है, FIR दर्ज करने में नहीं

FIR दर्ज करना सिर्फ़ अपराध की सूचना दर्ज करना है,
उसकी सत्यता या पुरानापन का निर्णय जांच अधिकारी (IO) करता है, SHO नहीं।

  • SHO को FIR दर्ज करनी ही होती है।
  • जांच के दौरान अगर यह पाया जाता है कि अपराध बहुत पुराना है या साक्ष्य नहीं हैं, तब “Final Report (Closure Report)” भेजी जा सकती है।
    लेकिन FIR दर्ज करने से पहले इनकार करना गैरकानूनी है।

🧑‍⚖️ 3. सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्णय

Lalita Kumari vs. Govt. of U.P. (2014) 2 SCC 1

“FIR must be registered if the complaint discloses a cognizable offence. Preliminary enquiry is permissible only in limited categories like corruption, medical negligence etc.”

यानि कि –

“सिर्फ इसलिए कि मामला पुराना है या जाँच कठिन है, पुलिस FIR दर्ज करने से इनकार नहीं कर सकती।”


📬 4. आपको क्या करना चाहिए

यदि SHO कहे कि – “यह पुराना मामला है, अब FIR नहीं होगी,” तो आप यह करें 👇

(a) उसी समय एक लिखित आवेदन या पत्र देकर लिखें —

“मैंने संज्ञेय अपराध की सूचना दी है, कृपया CrPC धारा 154(1) के अनुसार FIR दर्ज करें। SHO द्वारा ‘मामला पुराना है’ कहकर इनकार करना विधि-विरुद्ध है।”

(b) फिर उसी आवेदन की प्रतिलिपि Speed Post से वरीय पुलिस अधीक्षक (SP), भागलपुर को भेजें —

CrPC की धारा 154(3) के अंतर्गत।

(c) यदि फिर भी कोई कार्रवाई नहीं होती है, तो आप न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) के समक्ष धारा 156(3) CrPC के तहत आवेदन देकर FIR दर्ज करने का आदेश मांग सकते हैं।


संक्षेप में उत्तर:

SHO का “मामला पुराना है” कहकर FIR से इनकार करना कानूनी रूप से गलत है।
जब तक आवेदन में संज्ञेय अपराध (जैसे धोखाधड़ी, जालसाजी, धमकी, अपहरण) का विवरण है, SHO को FIR दर्ज करनी अनिवार्य है।

👉 प्री-इंक्वायरी (Preliminary Enquiry) का मतलब होता है —
FIR दर्ज करने से पहले पुलिस द्वारा की जाने वाली प्रारंभिक जांच

यानि, जब किसी शिकायत में यह साफ़ नहीं होता कि
वास्तव में संज्ञेय अपराध हुआ है या नहीं,
तो SHO थोड़ी प्राथमिक जांच (initial verification) कर सकता है —
ताकि यह तय किया जा सके कि FIR दर्ज करनी है या नहीं।


📜 2. क्या यह हमेशा ज़रूरी होती है?

नहीं! प्री-इंक्वायरी हर केस में जरूरी नहीं होती।

👉 सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि FIR दर्ज करने से पहले प्री-इंक्वायरी सिर्फ़ कुछ विशेष मामलों में की जा सकती है।
अन्यथा FIR दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य (mandatory duty) है।


⚖️ **3. सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय:

📚 Lalita Kumari vs. Government of U.P. (2014) 2 SCC 1**

इस केस में 5 जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट कहा —

🔹 “If information discloses commission of a cognizable offence, registration of FIR is mandatory.”
🔹 “Preliminary enquiry may be conducted only in certain categories of cases.”


📘 4. किन मामलों में “प्री-इंक्वायरी” की अनुमति है

सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि केवल निम्नलिखित सीमित मामलों में प्री-इंक्वायरी की जा सकती है 👇

क्रममामलाउदाहरण
1️⃣भ्रष्टाचार (Corruption cases)सरकारी अधिकारी पर रिश्वत का आरोप
2️⃣मेडिकल लापरवाही (Medical negligence)डॉक्टर की गलती से मरीज को नुकसान
3️⃣वैवाहिक / पारिवारिक विवाद (Matrimonial disputes)पति-पत्नी के बीच घरेलू झगड़ा
4️⃣व्यावसायिक विवाद (Commercial transactions)व्यावसायिक अनुबंध से जुड़ा विवाद
5️⃣भूमि या संपत्ति विवाद जिनमें धोखाधड़ी का कोई स्पष्ट आरोप नहीं हैकेवल जमीन के अधिकार या कब्जे का विवाद (सिर्फ सिविल प्रकृति का)

🚫 5. किन मामलों में “प्री-इंक्वायरी” नहीं की जा सकती

👉 जब शिकायत में ये चीजें हों —

  • धोखाधड़ी (420 IPC)
  • जालसाजी (467, 468, 471 IPC)
  • धमकी, मारपीट, जान से मारने की कोशिश (506, 307 IPC)
  • अपहरण (364 IPC)
  • आपराधिक साजिश (120B IPC)

तो ये सभी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offences) हैं,
और इनमें प्री-इंक्वायरी की कोई जरूरत नहीं
पुलिस को तुरंत FIR दर्ज करनी होती है।


🧾 6. प्री-इंक्वायरी की समय सीमा

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है:

“If preliminary enquiry is conducted, it must be completed within 7 days and the reasons must be recorded in writing.”

यानि पुलिस 7 दिनों से ज्यादा प्री-इंक्वायरी नहीं खींच सकती,
और अगर FIR न दर्ज करने का निर्णय लिया जाता है,
तो उसका कारण लिखित रूप में शिकायतकर्ता को देना अनिवार्य है।


7. संक्षेप में निष्कर्ष:

स्थितिक्या FIR सीधे दर्ज होगी?प्री-इंक्वायरी की जरूरत?
संज्ञेय अपराध स्पष्ट है (धोखाधड़ी, धमकी, अपहरण आदि)✅ हाँ❌ नहीं
मामला संदिग्ध है या सिविल और क्रिमिनल दोनों का मिश्रण है⏳ हाँ, 7 दिन में⚠️ हाँ, सीमित सीमा तक
केवल सिविल विवाद, कोई अपराध नहीं❌ नहीं⚠️ हाँ (सिर्फ यह तय करने के लिए कि अपराध हुआ या नहीं)

⚖️ 1. FIR दर्ज करने से पहले SHO का अधिकार क्या है?

CrPC धारा 154(1) के अनुसार:

“यदि किसी व्यक्ति को किसी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) की सूचना प्राप्त होती है, तो पुलिस अधिकारी उस सूचना को लिखित रूप में दर्ज करेगा।”

इसका मतलब —
➡️ यदि आपकी शिकायत में अपराध (जैसे धोखाधड़ी, धमकी, अपहरण, जालसाजी आदि) का स्पष्ट उल्लेख है,
तो SHO को FIR दर्ज करना अनिवार्य है


⚠️ 2. SHO “पुनः बयान” क्यों लेता है

कभी-कभी SHO यह सुनिश्चित करने के लिए कि —

  • शिकायत वास्तविक व्यक्ति द्वारा दी गई है (कोई फर्जी आवेदन नहीं),
  • आरोपों को वह स्वयं समझ सके,
  • अपराध कॉग्निजेबल (संज्ञेय) है या नहीं —

वह एक छोटा-सा प्रारंभिक बयान (verification statement) ले सकता है।
👉 यह जाँच नहीं, बल्कि केवल “पुष्टि (verification)” होती है।


🚫 3. लेकिन FIR दर्ज करने से पहले “विस्तृत पूछताछ” या “क्रॉस-जांच” नहीं की जा सकती

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार —

Lalita Kumari vs. Govt. of U.P. (2014) 2 SCC 1:

“If the information discloses a cognizable offence, registration of FIR is mandatory.
Preliminary enquiry or repeated questioning of the complainant cannot be used to delay registration.”

📜 मतलब:

SHO केवल इतना पूछ सकता है कि “आपने यह शिकायत दी है?”
लेकिन वह दोबारा बयान लेकर FIR दर्ज करने में देरी नहीं कर सकता,
न ही यह तय करने का बहाना बना सकता है कि “पहले जांच करेंगे, फिर FIR करेंगे।”


🕒 4. SHO “प्री-इंक्वायरी” में भी बयान ले तो सीमा तय है

अगर SHO यह कहता है कि —

“हम FIR से पहले थोड़ा-बहुत सत्यापन कर रहे हैं,”

तो वह 7 दिन के भीतर (सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सीमा)
उस प्रक्रिया को पूरा करे और FIR दर्ज करे या
लिखित रूप में कारण बताकर मना करे


5. निष्कर्ष (Summary):

स्थितिSHO क्या कर सकता हैSHO क्या नहीं कर सकता
शिकायत मिलते हीशिकायत की प्राप्ति दर्ज करनाFIR दर्ज करने से इनकार करना
संदेह हो तोकेवल पहचान व तथ्य की पुष्टि हेतु छोटा बयान ले सकता हैविस्तृत पूछताछ, गवाह बुलाना, या जाँच प्रारंभ नहीं कर सकता
अपराध स्पष्ट होसीधे FIR दर्ज करनी चाहिएFIR से पहले “बयान लेकर रोकना” अवैध है

🔹 ⚖️ धारा 154(1):

जब किसी व्यक्ति को किसी संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) के बारे में पुलिस को सूचना देनी होती है —
तो पुलिस अधिकारी उस सूचना को लिखित रूप में दर्ज करेगा।

यदि सूचना मौखिक रूप से दी गई है, तो उसे लिखकर सुनाया जाएगा,
और शिकायतकर्ता से हस्ताक्षर करवाए जाएंगे।

इसके बाद उस सूचना को “FIR रजिस्टर (FIR Book)” में दर्ज किया जाएगा।

📜 मतलब:
अगर आपकी शिकायत में कोई संज्ञेय अपराध (जैसे — हत्या, अपहरण, धोखाधड़ी, जालसाजी, धमकी, बलात्कार, डकैती आदि) है,
तो थाना प्रभारी (SHO) को FIR लिखित रूप में दर्ज करनी अनिवार्य है।


🔹 धारा 154(2):

FIR की एक कॉपी निःशुल्क शिकायतकर्ता को दी जाएगी।

📜 मतलब:
FIR दर्ज होने के बाद पुलिस को आपको FIR नंबर और उसकी कॉपी मुफ्त में देनी होती है।


🔹 धारा 154(3):

यदि थाना प्रभारी (SHO) FIR दर्ज करने से इनकार करता है,
तो व्यक्ति उस आवेदन की कॉपी व प्रमाण के साथ पुलिस अधीक्षक (SP) को भेज सकता है।

SP उस आवेदन की जांच करवाकर स्वयं FIR दर्ज करने या जांच कराने का आदेश दे सकता है।

📜 मतलब:
अगर SHO बहाने बनाता है —
जैसे “मामला पुराना है”, “सिविल नेचर का है”, “बदले की भावना से है”, “आप आरोपी हैं” आदि —
तो आप Speed Post से SP को भेजें, और CrPC 154(3) का उल्लेख करें।


⚖️ CrPC 154 का उद्देश्य क्या है

इस धारा का उद्देश्य यह है कि —

“कोई भी संज्ञेय अपराध छिपा न रह जाए और हर नागरिक को न्याय का अवसर मिले।”

📌 इसलिए पुलिस “पहले जांच करेंगे फिर FIR करेंगे” जैसी बातें नहीं कह सकती —
यह कानून का उल्लंघन है।


🧑‍⚖️ सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णय

1️⃣ Lalita Kumari vs. Govt. of U.P. (2014) 2 SCC 1

“If the information discloses a cognizable offence, registration of FIR is mandatory under Section 154.”

👉 FIR दर्ज करने से इनकार करने का कोई बहाना नहीं चलेगा।
“बदले की भावना”, “पुराना मामला”, “सिविल नेचर” — यह सब गैरकानूनी कारण हैं।


⚖️ संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) क्या होता है?

📘 Cognizable Offence वो अपराध होता है जिसमें
पुलिस बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के FIR दर्ज कर सकती है और गिरफ्तारी कर सकती है।

उदाहरणसंज्ञेय अपराध
302हत्या
364अपहरण
420धोखाधड़ी
467–471जालसाजी
506आपराधिक धमकी
120Bआपराधिक साजिश

आपके केस में (जैसा कि आपके आवेदन में है) —
इन सभी अपराधों का उल्लेख है, इसलिए FIR सीधे दर्ज की जानी चाहिए


🧾 अगर SHO FIR नहीं करता तो क्या करें (व्यवहारिक क्रम):

क्रमकदमधारा
1️⃣थाना में लिखित शिकायत देकर FIR दर्ज कराने का अनुरोधCrPC 154(1)
2️⃣SHO मना करे, तो आवेदन SP को Speed Post से भेजेंCrPC 154(3)
3️⃣SP भी कार्रवाई न करे, तो न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास जाएंCrPC 156(3)

संक्षेप में निष्कर्ष:

बिंदुसारांश
धाराCrPC 154
उद्देश्यसंज्ञेय अपराध की सूचना पर FIR दर्ज करना
कौन करेगाथाना प्रभारी (SHO)
FIR की कॉपीशिकायतकर्ता को निःशुल्क दी जाएगी
SHO मना करे तोSP को लिखित आवेदन (धारा 154(3))
फिर भी कार्रवाई न होमजिस्ट्रेट को आवेदन (धारा 156(3))